पिछले कुछ दशकों में भारतीय महिला एथलीटों ने ओलंपिक में देश का नाम गौरान्वित किया है।
साइना नेहवाल (Saina Nehwal) ने लंदन 2012 में भारत के लिए ओलंपिक इतिहास में पहला बैडमिंटन पदक जीता था।
उसी समर ओलंपिक में भारत की दिग्गज महिला मुक्केबाज़ एमसी मैरी कॉम (MC Mary Kom) ने भी अपने पहले ओलंपिक में ही भारत के लिए कांस्य पदक जीतते हुए इतिहास रच दिया था।
इसके चार साल बाद रियो 2016 में पीवी सिंधु या साक्षी मलिक ने भी क्रमश: रजत और कांस्य पदक जीतते हुए भारत को गौरान्वित किया और उनकी कई उपलब्धियां हमेशा के लिए यादगार बन गईं। लेकिन उन सभी में कर्णम मल्लेश्वरी अग्रणी रही हैं।
सिंधु के जन्म से दो साल पहले वेट लिफ्टिंग (भारोत्तोलन) में अपना पहला विश्व खिताब जीतने के बाद, मल्लेश्वरी एक उपमहाद्वीप की पहली ऐसी महिला थीं जिन्होंने ओलंपिक पदक जीता था। एक ऐसी उपलब्धि जिसने सिंधु, मलिक और अन्य लोगों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।
भारत की दिग्गज वेटलिफ़्टर ने 19 सिंतबर 2000 को भारत के लिए ओलंपिक में कांस्य पदक जीता था और भारतीय इतिहास की वह पहली महिला बनीं थीं जिन्होंने देश के लिए ओलंपिक पदक हासिल किया हो।
स्क्रॉल.इन के साथ बातचीत में कर्णम ने कहा था, "एक लड़की का ओलंपिक पदक जीतना सभी के लिए हैरान करने वाली बात थी।"
ये ऐतिहासिक कहानी के पीछे कर्णम की कड़ी मेहनत और उनका दृढ़ संकल्प है।
मां ने कर्णम को दिखाया रास्ता
कर्णम मल्लेश्वरी खेलप्रेमियों के परिवार से आती हैं। उनके पिता कर्णम मनोहर कॉलेज स्तर के फुटबॉल खिलाड़ी थे, जबकि उनकी चार बहनों ने भारोत्तोलन में ही गईं थीं।
लेकिन विडंबना यह है कि यह उनकी माँ श्यामला थीं, जो परिवार की एकमात्र ऐसी शख्सियत थीं जो खेल की दुनिया से नहीं थीं, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने सपने को आगे बढ़ाने के लिए कर्णम मल्लेश्वरी को प्रोत्साहित किया।
12 साल की कर्णम को कोच नीलमशेट्टी अप्पन्ना जो आंध्र प्रदेश के छोटे से शहर वोवसावनीपेटा के एक स्थानीय व्यायामशाला में भारोत्तोलन सिखाते थे, उन्होंने अपने सानिध्य रखने से उन्हें इंकार कर दिया था। क्योंकि कर्णम खेल के लिए पतली और कमज़ोर थीं।
हालांकि, कर्णम की मां ने निराश हो चुकी कर्णम को भरोसा दिलाया। कर्णम मल्लेश्वरी ने कहा कि,
“मेरी मां ने मुझे कहा कि अगर तुम्हें बुरा लगता है कि लोगों ने तुम्हारी क्षमता पर संदेह किया है, तो उन्हें ग़लत साबित करो। मुझे पहला समर्थन मेरी मां से ही मिला।“
हालांकि, कर्णम मल्लेश्वरी के लिए महत्वपूर्ण मोड़ 1990 के एशियाई खेलों से पहले एक राष्ट्रीय शिविर में आया था, जहां संयोग से वह भारतीय भारोत्तोलक का हिस्सा नहीं थीं।
वह वहां अपनी बड़ी बहन कृष्णा कुमारी के साथ बस देखने गईं थीं, जिसे शिविर में चुना गया था। यहीं पर कर्णम मल्लेश्वरी को ओलंपिक और विश्व चैंपियन लियोनिद तारानेंको (Leonid Taranenko) ने देखा था, जिन्होंने भारतीय भारोत्तोलकों को कोचिंग दी थी।
तारानेंको ने देखा कि कर्णम ने शिविर को उत्सुकता से देखा, इसलिए वह उनके पास गए और उन्हें कुछ अभ्यास करने को कहा। यह उनकी प्रतिभा को समझाने के लिए पर्याप्त था और उन्होंने तुरंत कर्णम को बैंगलोर स्पोर्ट्स इंस्टीट्यूट की सिफारिश की।
1990 में अपनी पहली जूनियर राष्ट्रीय भारोत्तोलन चैंपियनशिप में, कर्णम मल्लेश्वरी ने 52 किग्रा वर्ग में नौ राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़े और एक साल बाद, उन्होंने अपने पहले सीनियर राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में रजत जीता।
यह कर्णम मल्लेश्वरी के करियर के सुनहरे दौर की शुरुआत थी।
विश्व चैंपियन बनने वाली पहली भारतीय महिला वेटलिफ्टर
1993 में अपनी पहली भारोत्तोलन विश्व चैंपियनशिप में कर्णम मल्लेश्वरी ने 54 किग्रा में कांस्य जीता।
एक साल बाद उन्होंने उसे एक स्वर्ण में बदल दिया, जिससे वह विश्व चैंपियनशिप में स्वर्ण जीतने वाली पहली भारतीय महिला वेटलिफ्टर बन गईं। उसी साल बाद में, कर्णम मल्लेश्वरी ने 1994 के एशियाई खेलों में भी रजत पदक जीता।
कर्णम ने 1995 में अपने विश्व खिताब का सफलतापूर्वक बचाव किया और फिर 1996 में विश्व चैम्पियनशिप स्वर्ण की हैट्रिक पूरा करने की दौड़ में थीं।
वह लगातार चार विश्व चैंपियनशिप में पदक के साथ लौटी थी, जिसमें 1994 और 1995 में स्वर्ण पदक शामिल थे, खेल के लिए अनफिट समझे जाने वाले लोगों के लिए एक करारा जवाब था।
जब वह बड़ी हो गई और उनका शरीर भी पहले से मज़बूत हुआ, तो कर्णम मल्लेश्वरी 63 किग्रा में स्थानांतरित हो गई, और विजयी भी रहीं, जिसके बाद उन्होंने 1998 में अपना दूसरा एशियाई खेल रजत जीता।
सिडनी 2000 में ओलंपिक में पहली बार महिलाओं के भारोत्तोलन को शामिल किया गया था।
हालांकि सभी की निगाहें कर्णम पर थीं, लेकिन बहुतों ने उनपर भरोसा नहीं जताया था क्योंकि उन्होंने 1996 से विश्व चैम्पियनशिप पदक नहीं जीता था। इसके अलावा वह 69 किग्रा में भी स्थानांतरित हो गई थी, एक ऐसी श्रेणी जिसमें वह विश्व स्तर पर इससे पहले नहीं खेलीं थीं।
हालाँकि, कर्णम मल्लेश्वरी लोगों को गलत साबित करना चाहती थीं और उन्होंने सिडनी में एक बार फिर ऐसा किया।
सिडनी खेलों में बाधाओं को पीछे छोड़ रचा इतिहास
69 किलोग्राम भारवर्ग में कर्णम मल्लेश्वरी, हंगरी की एर्ज़बेट मार्कस (Erzsebet Markus) और चीन की लिन वीनिंग (Lin Weining) वाले वर्ग में थीं और जल्द ही यह स्पष्ट हो गया था कि पोडियम की लड़ाई इन तीनों के ही बीच होगी।
फाइनल में, सभी तीन प्रतिभागियों ने स्नैच श्रेणी में प्रत्येक में 110 किग्रा वजन उठाया।
क्लीन एंड जर्क श्रेणियों में, वीनिंग ने बढ़त हासिल की, अपने पहले प्रयास में उन्होंने अविश्वसनीय 132.5 किलोग्राम वजन उठाया, जबकि कर्णम और मार्कस ने अपने पहले लिफ्ट में 125 किग्रा उठाया।
हालांकि वीनिंग ने अपने स्कोर में और सुधार नहीं किया, जबकि मार्कस ने संयुक्त रूप से दूसरे स्थान पर रहते हुए दूसरे प्रयास में 132.5 किग्रा सफलतापूर्वक उठाया जबकि कर्णम ने अपने दूसरे प्रयास में 130 किग्रा उठा लिया।
प्रतियोगिता अब क्लीन एंड जर्क राउंड में आ गई थी और यही निर्णायक था। अपने दोनों प्रतिद्वंद्वियों के साथ 242.5 किग्रा का कुल भार उठाने के बाद, कर्णम 2.5 किग्रा से पीछे चल रहीं थीं, जिससे उन्हें कम से कम 132.5 किग्रा उठाकर बॉडीवेट पर सिल्वर की गारंटी देने के लिए या सोने के लिए 135 किग्रा उठाना था।
कर्णम ने अपने कोचों की सलाह के साथ 137.5 किलोग्राम वजन उठाकर एक शानदार जीत हासिल करने का फैसला किया। यह उनकी पिछली लिफ्ट से 7.5 किग्रा ज़्यादा थी लेकिन उन्होंने अभ्यास में ऐसा पहले किया था और इसलिए उन्हें कोई संदेह नहीं था।
हालांकि, कर्णम मल्लेश्वरी निर्णायक क्षण में लड़खड़ा गईं। उन्होंने बारबेल को थोड़ी जल्दी उठा दिया और उनके घुटने पर चोट लगी, जिससे वह गिर गईं।
जिसकी वजह से उनके हाथों से शायद स्वर्ण पदक चूक गया लेकिन कर्णम मल्लेश्वरी को ओलंपिक कांस्य पदक मिल चुका था। इतिहास बन चुका था और देश ने एक उन्हें एक नया नायक मान लिया था।
इस ऐतिहासिक क़ामय़ाबी के बाद कर्णम मलेश्वरी ने स्पोर्ट्स्टार के साथ बाचतीच में कहा था,
“लोगों ने मेरे बारे में जो कहा उससे मैं प्रभावित नहीं थी। मुझे पता था कि मुझे क्या करना चाहिए, और मुझे क्या नहीं करना चाहिए। मुझे प्रतियोगिता में भाग लेना था, मंच पर जाना था और वजन उठाना था।“
कर्णम ने 2001 में मातृत्व अवकाश लिया और 2002 के राष्ट्रमंडल खेलों के लिए कड़ी मेहनत करने लगीं, लेकिन उनके पिता के अचानक निधन ने उन्हें कुछ दिनों के लिए खेल से दूर कर दिया था।
कर्णम मल्लेश्वरी ने एथेंस में 2004 ओलंपिक के लिए यात्रा की थी लेकिन पीठ की गंभीर चोट की वजह से वह अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दे पाईं थी और काफ़ी निराश थीं।
इस तरह से मलेश्वरी ने अपने करियर में एक ही ओलंपिक पदक जीता लेकिन इसने उन्हें एक स्थायी विरासत दी और उनकी उपलब्धि का कोई सानी नहीं, जिसने और भी महिलाओं को एक नया हौसला दिया।
“मुझे महिलाओं के लिए इस मार्ग को बनाने और उन्हें ओलंपिक पदक जीतने के लिए प्रोत्साहित करने पर गर्व महसूस होता है। कुछ लोग मुझे आज भी कहते हैं, ’क्या तुमने यह सब शुरू किया है’, इसलिए मुझे ख़ुशी है कि मैंने इस धारणा को बदल दिया।”- कर्णम मल्लेश्वरी